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Tuesday, September 16, 2025

HISTORY OF MADHYA PRADESH

गर्दभिल्ल वंश राजा गर्दभिल्ल उज्जैन के एक शक्तिशाली और पराक्रमी राजा थे। उज्जैन में उनके वंश का शासन लंबे समय तक रहा वह भील, शासक थे। राजा गर्दभिल्ल ही गंधर्वसेन अथवा गंधर्व भिल्ल परमार है इनके बेटे का नाम विक्रमादित्य था जिन्होंने भारत से शको को खदेड़ा था। सम्राट विक्रमादित्य का नाम संभवतः भील्ल इल्ल से संबंधित रहा। इस जनजाति से संबंधित ओडिशा के पूर्वी भाग के क्षेत्र को गर्दभिल्ल और भील प्रदेश कहा जाता है। मौर्यकाल में पश्चिम और मध्य भारत में भील जनजाति के अंतर्गत 4 नाग राजा, 7 गर्दभिल्ल भील राजा और 13 पुष्प मित्र राजाओं की स्वतंत्र सत्ता थी। राजा गर्दभिल्ल को कलकाचर्या नामक साधु की बहन सरस्वती से प्रेम था, साधु के खिलाफ जाकर उन्होंने सरस्वती का अपहरण कर लिया, इस पर उस साधु ने स्किथी/ स्किथियन राजा से सहयोग मांगा , लेकिन राजा गर्दभिल्ल से युद्ध करने की हिम्मत उस राजा में नहीं थी, तब साधु ने शकों से सहायता मांगी, शक और गर्दभिल्ल की सेना में भयानक युद्ध हुआ, और गर्दभिल्ल युद्ध हार गए, लेकिन उनके वंशज सम्राट विक्रमादित्य ने पुनः शकों को पराजित कर उज्जैन पर पुनः अधिकार कर लिया ,राजा गर्दभिल्ल भील जनजाति से संबंधित थे। राजा गर्धभिल्ल की कुल 7 रानिया थी जिनमें भील रानी की कोख से धन्वन्तरि, ब्राह्मणी रानी की कोख से वररुचि, बनयानी की कोख से शंकु, शूद्रा रानी की कोख से बेतालभट्ट, सतधारी नाम की रानी से वराहमिहिर पैदा हुए थे। उनकी क्षत्रिय रानी मृगनयनी थी शिवकी परमाराध्या थी नित्य भण्डारा करती थी। क्षिप्रा के जल से सूर्य को अर्घ्य देने वाली चम्पावर्णी स्त्री होने के कारण चम्पावती कहलायी थी ऐसा लिखा मिलता है। इन्हीं रानियों में एक अड़ोलिया रानी का भी वर्णन मिलता है जो युद्ध भूमि में अपनी वीरता के करना प्रसिद्ध थी। राजा विक्रमादित्य, की विजय से प्रभावित होकर आगे आने वाले समय में कुल 14 उपाधियों विक्रमादित्य नाम से अन्य राजाओं को दी गई। अवंती में गर्दभिल्ल वंश का शासन 152 वर्ष तक रहा। राजा गर्दभिल्ल के बाद शकों ने महज 4 वर्ष अवंती पर शासन किया उन्हें सम्राट विक्रमादित्य ने प्रास्त कर के पुनः अवंती साम्राज्य पर गर्दभिल्ल वंश का शासन स्थापित किया । गर्दभिल्ल वंश में कुल 7 भील राजा हुए। गदर्भ सिक्के गर्दभिल्ल वंश गदर्भ सिक्के चलाते थे जो 3-4 मासा चांदी के होते थे। पश्चिमी मध्य प्रदेश का औलिकर वंश
औलिकर वंश की स्थापना पश्चिमी मध्य प्रदेश में उस समय हुई जब लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत में गुप्त राजाओं का शासन चल रहा था। औलिकर वंश की राजधानी दशपुर थी, जिसे वर्तमान में मंदसौर के नाम से जाना जाता हैै। इस वंश के सम्बंध में प्रमुख जानकारी मंदसौैर अभिलेख, कोटरा अभिलेख तथा वराहमिहिर के ग्रंथ वृहतसंहिता से प्राप्त होती है। समुद्रगुप्त के शासन काल में ही पश्चिमी मालवा में औलिकर वंश की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक महत्त्वाकांक्षा उभरने लगी थी। औलिकर वंश के आरम्भिक शासक औलिकर वंश के आरम्भिक शासक गुप्त वंश के राजाओं के सामंत थे। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने पूर्वी मालवा में सनकानीक तथा पश्चिमी मालवा में औलिकर शासकों को अपना सामंत बनाया। नरवर्मा मंदसौर व उदयपुर के विहार कोटरा अभिलेख में औलिकर वंश के राजा नरवर्मा के नाम का उल्लेख मिलता है। नरवर्मा के पितामह का नाम जयवर्मा तथा पिता का नाम सिंहवर्मा था। अभिलेख से यह पता चलता है कि इन आरम्भिक शासकों ने देवेन्द्रविक्रम, सिंहविक्रान्तगामिन आदि उपाधियां धारण की। नरवर्मा औलिकर वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक था। विश्ववर्मा नरवर्मा का उत्तराधिकारी विश्ववर्मा था। उसका एक अभिलेख राजस्थान के झालावाड़ जिले के गंगधार नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख में विश्ववर्मा को स्वतंत्र शासक बताया गया है। यह अभिलेख 423 ईसवी का है। किन्तु वह यह स्वतंत्रता अधिक समय तक कायम नहीं रख सका। विश्ववर्मा के उत्तराधिकारी बंधुवर्मा के दशपुर अभिलेख से पता चलता है कि विश्ववर्मा को गुप्त सम्राट् कुमारगुप्त प्रथम ने अपना गोप्ता नियुक्त कर दिया। यह अभिलेख 436 ईसवी का है। इस अभिलेख से यह भी पता चलता है विश्ववर्मा के शासनकाल में गुजरात के लाट प्रदेश से आमंत्रित किये गये रेशमी वस्त्रों के बुनकरों की श्रेणी ने मंदसौर में सूर्य मन्दिर का निर्माण करवाया। बाद में किसी प्राकृतिक आपदा या किसी आक्रमण के कारण यह मन्दिर क्षतिग्रस्त हो गया, जिसका जीर्णोद्धार इन बुनकरों ने 36 वर्षों बाद सन् 472 ई. में करवाया। बन्धुवर्मा विश्ववर्मा की मृत्यू के बाद बन्धुवर्मा दशपुर का गोप्ता नियुक्त किया गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के पुत्र तथा कुमार गुप्त के छोटे भाई गोविन्द गुप्त ने बन्धुवर्मा के अन्तिम समय में दशपुर को अपने अधीन कर प्रभाकर को वहाँ शासक नियुक्त किया। औलिकर वंश की स्वतंत्रता तथा प्रकाशधर्मा दशपुर के निकट रिस्थल नामक स्थल से 515 ईसवी का औलिकार शासक प्रकाशधर्मा का अभिलेख प्राप्त हुुआ है। इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि प्रकाशधर्मा ने हूण नेता तोरमाण को युद्ध में पराजित कर पश्चिमी मालवा से खदेड़ दिया और अधिराज की उपाधि धारण की। हुण शासक तोरमाण की पराजय व गुप्त शासक स्कंद गुप्त के निधन ने औलिकार वंश को अपने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाने का अवसर प्रदान किया। प्रकाशधर्मा ने हूण शासक तोरमाण को पराजित कर दशपुर क्षेत्र में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। रिस्थल अभिलेख के अनुसार प्रकाशधर्मा एक प्रतापी शासक था। यशोधर्मा विष्णुवर्धन प्रकाशधर्मा की मृत्यू के बाद यशोधर्मा विष्णुवर्धन औलिकार वंश का शासक बना। वह इस वंश का सबसे महान् शासक था। मन्दसौर में उसके दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने आक्रामक हूण-नेता मिहिरकुल को पराजित कर मालवा से बाहर धकेल दिया था। उसने रिस्थल में प्रकाशेश्वर का शिव मन्दिर एवं विभीषण तड़ाग का निर्माण करवाया और भागवतप्रकाश की उपाधि धारण की थी। वराहमिहिर ने अपनी कृति बृहत्संहिता में आदित्यवर्धन एवं द्रव्यवर्धन का उल्लेख किया है। दशपुर के इन औलिकर शासकों को वराहमिहिर ने अवन्ति प्रदेश का शासक कहा। अभिलेख कहता है कि यशोधर्मन ने अपने राज्य का विस्तार किया। उसने अपने सामंतों की नियुक्ति असम की लोहित्य (ब्रह्मपुत्र) नदी से लेकर महेन्द्र पर्वत (पूर्वी घाट) तक तथा हिमालय की तलहटी में बहने वाली गंगा नदी से लेकर पश्चिमी समुद्र तक फैले हुए क्षेत्र में की। उसने राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण की। यशोधर्मन की जो प्रशस्ति इन अभिलेखों में गाई गई है, वह भले ही अतिशयोक्ति-पूर्ण रही हो, किन्तु इतना तो तय है कि गुप्त सत्ता के पतन के काल में पश्चिमी मालवा में औलिकर सत्ता का तेजी से विकास हुआ। यह सत्ता कुछ समय तक गुप्तों की अधीनता और स्वतंत्रता की बीच झूलती रही। औलिकर वंश का पतन यशोधर्मन की मृत्यु के बाद औलिकर वंश का बड़ी तेजी से पतन होने लगा। दशपुर क्षेत्र के कतिपय राजाओं के नाम हमें कुछ अभिलेखों से मिलते हैं। जिनमें यज्ञसेन, वीरसोम, भास्करवर्मा, कुमारवर्मा तथा कृष्णवर्मा का नाम प्रमुख है। इन कमजोर शासकों की निर्बलता का लाभ उठाकर वाकाटक और कलचुरी शासकों ने धीरे धीरे मालवा पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार छठवी शताब्दी के अंत तक मालवा से औलिकर वंश का शासन समाप्त हो गया।