भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा : याज्ञवल्क्य स्मृति, मिताक्षरा और दायभाग, स्त्रीधन – सौदायिक तथा असौदायिक
भारत की सभ्यता और संस्कृति की सबसे महत्वपूर्ण पहचान उसकी प्राचीन ज्ञान परंपरा है। यहाँ ज्ञान केवल सैद्धांतिक नहीं बल्कि व्यावहारिक और जीवन-उपयोगी रहा है। ऋग्वैदिक मंत्रों से लेकर उपनिषदों के गूढ़ दार्शनिक विचारों तक, धर्मसूत्रों से लेकर स्मृतियों तक और न्याय-मीमांसा से लेकर राजनीति एवं समाजशास्त्र तक – भारत की यह परंपरा अत्यंत समृद्ध रही है। इन्हीं परंपराओं में एक विशेष स्थान है याज्ञवल्क्य स्मृति, मिताक्षरा, दायभाग और स्त्रीधन की अवधारणाओं का।
यह ब्लॉग खासतौर से UPSC, MPPSC एवं अन्य सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों के लिए तैयार किया गया है। आइए विस्तार से समझते हैं –
🔹 1. याज्ञवल्क्य स्मृति (Yajnavalkya Smriti)
याज्ञवल्क्य ऋषि को भारत की धर्मशास्त्रीय परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मनुस्मृति के बाद सबसे अधिक प्रचलन और आदर याज्ञवल्क्य स्मृति को ही मिला।
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इसे लगभग 5वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास रचा गया माना जाता है।
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इसमें तीन कांड हैं – आचार कांड, व्यवहार कांड और प्रायश्चित्त कांड।
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व्यवहार कांड में विधि, न्याय, उत्तराधिकार और संपत्ति संबंधी नियमों का विस्तृत उल्लेख है।
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याज्ञवल्क्य स्मृति की विशेषता यह है कि यह अपेक्षाकृत व्यवहारिक, व्यवस्थित और स्पष्ट है।
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यही कारण है कि आगे चलकर मिताक्षरा और दायभाग जैसी टीकाएँ इसी पर आधारित हुईं।
याज्ञवल्क्य स्मृति ने भारतीय न्यायशास्त्र और उत्तराधिकार कानून की नींव रखी।
🔹 2. मिताक्षरा (Mitakshara)
याज्ञवल्क्य स्मृति पर लिखी गई सबसे प्रसिद्ध टीका ‘मिताक्षरा’ है। इसे 11वीं शताब्दी में विज्ञानेश्वर ने लिखा।
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"मिताक्षरा" शब्द का अर्थ है – संक्षिप्त व्याख्या।
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यह पूरे भारत में सबसे अधिक मान्य और प्रभावशाली रही।
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उत्तराधिकार कानून के मामले में मिताक्षरा पद्धति को अपनाया गया।
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मिताक्षरा के अनुसार –
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पुत्र को जन्म से ही पिता की संपत्ति में अधिकार है।
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परिवार की संयुक्त संपत्ति पर सभी सदस्यों का साझा स्वामित्व होता है।
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स्त्रीधन की परिभाषा दी गई और महिलाओं की संपत्ति के अधिकारों को कुछ हद तक मान्यता मिली।
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आज भी भारत के अधिकांश राज्यों में हिंदू उत्तराधिकार कानून की नींव मिताक्षरा पद्धति से जुड़ी हुई है।
🔹 3. दायभाग (Dayabhaga)
याज्ञवल्क्य स्मृति पर आधारित एक अन्य प्रसिद्ध टीका है – दायभाग। इसे जिमूतवाहन (12वीं शताब्दी) ने लिखा।
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"दायभाग" का अर्थ है – विरासत का बँटवारा।
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यह विशेष रूप से बंगाल और असम में प्रचलित हुआ।
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दायभाग और मिताक्षरा के बीच मुख्य अंतर यह है कि –
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मिताक्षरा में पुत्र को जन्म से ही संपत्ति का अधिकार है।
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जबकि दायभाग में पुत्र को पिता की मृत्यु के बाद ही अधिकार मिलता है।
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दायभाग में महिलाओं को अपेक्षाकृत अधिक अधिकार दिए गए।
इस प्रकार, दायभाग को स्त्रियों के प्रति अधिक न्यायसंगत और प्रगतिशील माना जाता है।
🔹 4. स्त्रीधन (Stridhan)
भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा में स्त्रियों के संपत्ति अधिकारों पर भी विशेष चर्चा हुई है। ‘स्त्रीधन’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है – स्त्री की संपत्ति।
याज्ञवल्क्य स्मृति, मिताक्षरा और दायभाग में स्त्रीधन की परिभाषा और उसकी श्रेणियों का उल्लेख मिलता है।
स्त्रीधन की परिभाषा:
स्त्री को विवाह, उपहार, आभूषण, दान या अन्य रूपों में जो संपत्ति प्राप्त होती है, वह स्त्रीधन कहलाती है।
स्त्रीधन के प्रकार:
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सौदायिक (Saudayik) –
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पति या ससुराल पक्ष से प्राप्त उपहार।
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विवाह के समय या बाद में दिए गए आभूषण, वस्त्र आदि।
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यह स्त्री की पूर्ण संपत्ति मानी जाती थी।
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असौदायिक (Asaudayik) –
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मायके या अन्य रिश्तेदारों से मिला दान।
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मित्रों या अन्य स्रोतों से मिली संपत्ति।
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इसका उपयोग स्त्री को स्वतंत्रता से करने का पूर्ण अधिकार था।
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🔹 5. आधुनिक संदर्भ में महत्व
आज भारतीय संविधान और कानून ने स्त्रियों को समानता, संपत्ति अधिकार और उत्तराधिकार में व्यापक अधिकार दिए हैं। फिर भी, इन प्राचीन ग्रंथों का महत्व इसलिए है क्योंकि –
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इन्होंने भारतीय समाज में कानूनी व्यवस्था और उत्तराधिकार कानून की नींव रखी।
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स्त्रीधन की अवधारणा ने महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता का पहला द्वार खोला।
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मिताक्षरा और दायभाग पद्धतियाँ आज भी भारतीय न्यायालयों में कानूनी संदर्भ के रूप में उद्धृत की जाती हैं।
🔹 6. परीक्षा दृष्टि से महत्वपूर्ण बिंदु
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याज्ञवल्क्य स्मृति – तीन कांड (आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त)।
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मिताक्षरा – विज्ञानेश्वर द्वारा रचित, पुत्र को जन्म से संपत्ति का अधिकार।
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दायभाग – जिमूतवाहन द्वारा रचित, पुत्र को पिता की मृत्यु के बाद अधिकार।
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स्त्रीधन – स्त्री की व्यक्तिगत संपत्ति।
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सौदायिक – पति या ससुराल पक्ष से मिला।
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असौदायिक – मायके या अन्य स्रोतों से मिला।
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🔹 निष्कर्ष
भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा केवल आध्यात्मिक या धार्मिक नहीं थी, बल्कि इसमें कानूनी, सामाजिक और आर्थिक जीवन को दिशा देने की भी अद्भुत क्षमता थी। याज्ञवल्क्य स्मृति, मिताक्षरा, दायभाग और स्त्रीधन की अवधारणा इस बात का प्रमाण है कि प्राचीन भारत में समाज-व्यवस्था कितनी संगठित और न्यायसंगत थी।
आज जब हम न्याय, समानता और अधिकारों की बात करते हैं, तो यह समझना आवश्यक है कि इसकी जड़ें हमारी प्राचीन परंपराओं में कितनी गहराई से मौजूद हैं।
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