Wednesday, September 17, 2025
Mahabharat Period in Madhya Pradesh
चेदी
वर्तमान में ग्वालियर क्षेत्र को महाभारत काल में चेदी देश के रूप में जाना जाता था। गंगा व नर्मदा के मध्य स्थित चेदी महाभारत काल के संपन्न नगरों में से एक था।
इस राज्य पर श्रीकृष्ण के फुफेरे भाई शिशुपाल का राज था।
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय चेदी नरेश शिशुपाल को भी आमंत्रित किया गया था। शिशुपाल ने यहां कृष्ण को बुरा-भला कहा, तो कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका शीश काट दिया।
सोणितपुर
मध्यप्रदेश के इटारसी को महाभारत काल में सोणितपुर के नाम से जाना जाता था। सोणितपुर पर वाणासुर का राज था। वाणासुर की पुत्री उषा का विवाह भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के साथ सम्पन्न हुआ था।
विदर्भ
महाभारतकाल में विदर्भ क्षेत्र पर जरासंध के मित्र राजा भीष्मक का राज था। रुक्मिणी भीष्मक की पुत्री थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर उनसे विवाह रचाया था।
अवन्तिका
मध्य प्रदेश के उज्जैन का उल्लेख महाभारत के उद्योग पर्व में अवन्तिका के रूप में मिलता है। इसका वर्णन विष्णु पुराण व भागवत पुराण में भी मिलता है।
पौराणिक वृत्तांतों के अनुसार, हैहय अवंती के आरम्भिक शासक थे, जिन्होंने नागों को हरा कर इस क्षेत्र पर कब्जा किया था। उन्होंने महिष्मति यानी महेश्वर को अपनी राजधानी बनाई।
कुछ विवरणों में उज्जयिनी को अवंती की राजधानी बताया गया है।
यहां ऋषि सांदपनी का आश्रम था। जहां से भगवान श्रीकृष्ण ने शिक्षा ग्रहण की थी।
उज्जैन शिप्रा नदी के पूर्वी तट पर स्थित एक प्राचीन नगर। यह मध्य भारत के मालवा पठार पर सबसे प्रमुख शहर था।
अवन्तिका को देश के सात प्रमुख पवित्र नगरों में एक माना जाता है। अन्य छः पवित्र नगर अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, बनारस, कांचीपुरम और द्वारका हैं।
यहां भगवान शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में एक महाकाल स्थापित है।
चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त ने अवंती को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उनके पोते अशोक के शिलालेखों में मौर्य साम्राज्य के चार प्रांतों का उल्लेख है, जिनमें से पश्चिमी प्रांत की राजधानी उज्जैन थी।
बिंदुसार के शासनकाल में अशोक ने उज्जैन के वाइसराय के रूप में कार्य किया।
अशोक का विवाह वेदिसगिरि (विदिशा) के एक व्यापारी की बेटी देवी से हुआ। सिंहली बौद्ध परंपरा के अनुसार, उनके बच्चे महेंद्र और संघमित्रा, जिन्होंने आधुनिक श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया, का जन्म उज्जैन में हुआ था।
चौथी और पाँचवीं शताब्दी के दौरान उज्जैन गुप्त शासकों का एक महत्वपूर्ण शहर बना रहा।
5वीं शताब्दी के महान भारतीय शास्त्रीय कवि कालिदास, जो गुप्त राजा विक्रमादित्य के समय में थे, ने अपना महाकाव्य मेघदूत लिखा जिसमें उन्होंने उज्जैन और उसके लोगों की समृद्धि का वर्णन किया है।
छठी शताब्दी ईस्वी में चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग ने भारत का दौरा किया था। वह अवंती के शासक का वर्णन एक ऐसे राजा के रूप में करता है जो गरीबों के प्रति उदार था और उन्हें उपहार देता था।
भरथरी ने अपने महान महाकाव्य, विराट कथा, नीति शतक, प्रद्योत राजकुमारी वासवदत्ता और उदयन की प्रेम कहानी उज्जयिनी में लिखी थी। वह संभवतः इसी शहर में रहते थे।
महाकवि कालिदास ने भी अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा उज्जैन में बिताया। शूद्रक ने मृच्छकटिकम की रचना भी उज्जैन में की। सोमदेव के कथासरित्सागर (11वीं शताब्दी) में उल्लेख है कि यह शहर विश्वकर्मा द्वारा बनाया गया था।
उज्जैन परमार राजवंश की आरम्भिक राजधानी थी। राजा भोज ने अपनी राजधानी उज्जैन से धार हस्तान्तरित की।
मुगल जागीरदार जय सिंह द्वितीय (1688-1743) ने उज्जैन में जंतर मंतर का निर्माण कराया था।
1731 में राणोजी सिंधिया ने में उज्जैन में अपनी राजधानी स्थापित की। लेकिन उनके उत्तराधिकारी ग्वालियर चले गए, जहां उन्होंने 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ग्वालियर राज्य पर शासन किया।
महिष्मति
पौराणिक वृतान्तों के अनुसार महिष्मति यानी महेश्वर की स्थापना भगवान राम के पूर्वज और युवनाश्व के पुत्र तथा इच्क्ष्वाकु वंश के महाराज मान्धाता ने की। इसीलिए इसे मान्धाता नगरी भी कहा जाता है।
उन्होंने नर्मदा नदी द्वारा निर्मित खूबसूरत द्वीप पर भगवान शंकर को स्थापित किया। यहां स्थापित भगवान शिव का लिंग देश के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इसे ओंकारेश्वर या मुमलेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है।
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग
खंडवा जिले में नर्मदा नदी द्वारा निर्मित ओम आकार के इस द्वीप पर भगवान शिव के दो बडे़ मंदिर निर्मित हैं। नदी के उत्तरी किनारे पर ओंकारेश्वर तथा दक्षिणी किनारे पर मुमलेश्वर नामक मंदिर निर्मित है।
मुमलेश्वर या मामलेश्वर का अर्थ ष्शाश्वतता के ईश्वरष् होता है। यह स्टैचू ऑफ वननेस या एकात्मता की मूर्ति खंडवा जिला मध्य प्रदेश के नर्मदा नदी के तट पर ओंकारेश्वर के मांधाता पर्वत पर स्थित है।
एकात्म धाम
एकात्मता की प्रतिमा तथा अद्वैत लोक संग्रहालय से सुशोभित इस भव्य धाम को एकात्म धाम की संज्ञा दी गई है।
ओंकारेश्वर का यह एकात्म धाम शंकराचार्य जी की ज्ञानस्थली है जहां उन्हें उनके गुरु गोविंद भागवतपाद से ज्ञान की दीक्षा मिली थी।
एकात्मता की मूर्ति 108 फीट ऊंची आदि शंकराचार्य जी की प्रतिमा है जिसे अष्टधातु को मिलाकर बनाया गया है।
यह प्रतिमा आदि शंकराचार्य की 12 वर्ष आयु की प्रतिमा है।
एकात्मता की इस प्रतिमा का कुल वजन 100 टन है जिसमें 88ः कॉपर 8ः टिन तथा 4ः जिंक का इस्तेमाल किया गया है।
इस प्रतिमा का निर्माण प्रसिद्ध मूर्ति कार भगवान रामपुरे एवं चित्रकार वासुदेव कामत के मार्गदर्शन द्वारा किया गया है।
दशार्ण
संपूर्ण दशार्ण क्षेत्र में ग्यारसपुर को विदिशा के बाद सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान कहा जाता है। दशार्ण पूर्वी मालवा क्षेत्र में धसान नदी और बेतवा नदी के बीच एक प्राचीन भारतीय जनपद था।
जनपद का नाम दशार्ण से लिया गया था, जो धसान नदी का प्राचीन नाम था। जनपद को अकारा के नाम से भी जाना जाता था और रुद्रदामन प्रथम ने अपने जूनागढ़ शिलालेख में इस क्षेत्र को इसी नाम से संदर्भित किया है।
कालिदास ने अपने मेघदूत में दशार्ण की राजधानी के रूप में विदिशा शहर का उल्लेख किया है। इस जनपद के अन्य महत्वपूर्ण शहर एराकिना और एरिकाछा थे ।
यह विदिशा से पूर्वाेत्तर दिशा में 23 मील की दूरी पर एक पहाड़ी की उपत्यका में बसा हुआ है। इसके इर्द-गिर्द मिले अवशेषों से पता चलता है कि यहाँ बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण तीनों संप्रदायों का प्रभाव रहा है।
यहाँ स्थित मुख्य स्मारक हैं-
1. बज्र मठ
2. मालादेवी का मंदिर
3. बौद्ध स्तूप
4. मंदिर तथा मानसरोवर ताल
5. हिंडोला तोरण
6. अठखम्भा
आठ स्तंभों का यह समुह एक विशाल मंदिर का अवशेष है। एक स्तंभ पर उत्कीर्ण अभिलेख सन् 982 का है।
बाजरा मठ (बज्र मठ)
यह एक विरल मंदिर है, जिसमें एक ही पंक्ति की तीन मूर्तियाँ स्थापित की गई है। यह वास्तव में ब्राह्मण धर्म से संबद्ध था, जिसमें हिंदूओं के तीनों मुख्य आराध्य त्रिदेव के रुप में रखे गये थे। मध्य स्थित मूर्ति सूर्य की थी, जो विष्णु के समतुल्य माने जाते हैं। यह दोनों तरफ से ब्रह्मा तथा शिव की मूर्तियों से घिरी थी।
दरवाजे और ताखों पर भी देवी- देवताओं की प्रतिमा उत्कीर्ण है। बाद में मुख्य मूर्तियों के स्थान पर जैन मूर्तियाँ स्थापित कर दी गई। मंदिर शिखर योजना तथा डिजाइन के दृष्टिकोण से अन्य मंदिरों से भिन्न है।
मालवदेव का मंदिर
ग्यासपुर मे स्थित स्मारकों में यह सबसे बड़ा है। इसे स्थानीय लोग मालादेई का मंदिर के नाम से जानते हैं। राजा भोज के वंशज तथा उदयादित्य के पौत्र मालवदेव एक पहाड़ी की इस रमणीय स्थान पर इस मंदिर का निर्माण करवाया। इसे पहाड़ी स्थित पत्थरों को काट कर बनाया गया है। इसमें गर्भगृह के अलावा एक हॉल तथा दलाननुमा प्रवेशद्वार है। गर्भगृह शिखर से ढ़का हुआ है।
बज्र मठ की तरह यह भी पहले ब्राह्मण धर्म से संबद्ध मंदिर था, जिसमें देवी की स्थापना की गई थी। बाद में कई जैन प्रतिमाओं को स्थापित कर दिया गया। अभी भी दरवाजें के बाहर सुंदर प्रतिमाएँ देखी जा सकती हैं।
बौद्ध स्तूप
ग्यारसपुर के उत्तर की ओर पहाड़ी पर अनगढ़े पत्थरों के कुछ ध्वस्त हो रहे चबुतरे दिखते हैं, जो स्तूप के साक्ष्य माने जाते हैं। इन स्तूपों को खजाने की खोज में लोगों ने खोल दिया है। यहाँ बुद्ध की बैठी हुई अवस्था में एक प्रतिमा मिली है।
वहाँ से 2 मील की दूरी पर पश्चिम की ओर पहाड़ी के पत्थर को काटकर बुद्ध की दो अन्य प्रतिमाएँ भी उत्कीर्ण की गई है।
मंदिर तथा मानसरोवर ताल
बौद्ध स्तूपों से 200 यार्ड की दूरी पर पूर्वी ढलान पर, मानसरोवर नामक एक छोटा- सा ताल अवस्थित है। इसे गौड़ नरेश मानसिंह ने 17 वीं सदी में बनवायी थी।
ताल के किनारे ही कई छोटे- छोटे मंदिर बनाये गये थे। बचे हुए अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है कि ये 8 वीं- 9 वीं सदी में बने हैं। एक मंदिर के गरुड़ की उत्कीर्ण प्रतिमा के आधार पर वैष्णव मंदिर बताया जाता है।
हिंडोला तोरण
इस मंदिर को चौखम्बा मंदिर भी कहते है। यह विष्णु या त्रिमूर्ति को समर्पित एक विशाल मंदिर का अलंकृत मेहरावनुमा तोरण है। दो उदग्र स्तंभों से निर्मित यह रचना देखने में पारंपरिक हिंडोले के समान ही लगता है। स्तंभ के चारों तरफ विष्णु के सभी दस अवतारों का चित्रण है।
नीलकंठेश्वर (उदयेश्वर) मंदिर
यह मंदिर विदिशा जिले में ग्यारसपुर से 20 किमी उदापुर में स्थित हैं। इस मंदिर का निर्माण परमारवंश के प्रतापी राजा भोज के भाई उदयादित्य ने करवाया था।
दूर यह भव्य मंदिर नागर मंदिर वास्तुकला की भूमिजा शैली के सबसे पुराने जीवित उदाहरणों में से एक है। जबकि कई भव्य परमार मंदिर परियोजनाएं, यानी भोजपुर मंदिर, बीजामंडल मंदिर, आदि अधूरे छोड़ दिए गए थे या इस्लामी छापे के दौरान नष्ट हो गए थे, नीलकंठेश्वर उन कुछ तैयार परियोजनाओं में से एक है, जिन्हें कुछ संशोधनों के अलावा कोई विनाश नहीं हुआ।
भूमिजा विधा का विकास मालवा क्षेत्र में 11 वीं शताब्दी ईस्वी के दौरान नागर मंदिर वास्तुकला के अंतिम विकासों में से एक के रूप में किया गया था।



