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Sunday, November 9, 2025

सन्यासी विद्रोह (Sanyasi Rebellion) – ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध प्रथम जन-विद्रोह

 

सन्यासी विद्रोह (Sanyasi Rebellion) – ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध प्रथम जन-विद्रोह

भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास केवल 1857 से नहीं शुरू होता — इसकी जड़ें उससे कहीं गहरी हैं। इन्हीं आरंभिक संघर्षों में से एक था “सन्यासी विद्रोह”, जिसने अंग्रेज़ों के अन्यायपूर्ण शासन के खिलाफ बंगाल की भूमि पर सबसे पहले विद्रोह की चिंगारी भड़काई।


🕉️ पृष्ठभूमि

सन्यासी विद्रोह का आरंभ अठारहवीं शताब्दी में बंगाल क्षेत्र में हुआ।
1764 में बक्सर युद्ध के बाद बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी को प्राप्त हो गए। इसके बाद कंपनी ने स्थानीय जनता पर कठोर कर नीति लागू कर दी।
इससे किसान, जमींदार और साधु-सन्यासी — सभी वर्गों में असंतोष फैल गया।

1770 में आई भयंकर बंगाल की अकाल (Bengal Famine) ने स्थिति को और विकट बना दिया।
अकाल के समय जब लोग भूख से मर रहे थे, तब भी अंग्रेज़ अधिकारी कर वसूलते रहे।
सन्यासियों, जो प्रायः देशभर के मंदिरों और तीर्थों से चंदा लेकर यात्रा करते थे, को भी जबरन टैक्स देना पड़ता था।
इसी अत्याचार ने इस विद्रोह को जन्म दिया।


🔥 विद्रोह की शुरुआत

इस आंदोलन का नेतृत्व धार्मिक साधुओं और संन्यासियों ने किया, जिनमें प्रमुख रूप से आनंद गिरि, भवानंद पांडे, और कई स्थानीय महंत शामिल थे।
इन सन्यासियों ने अंग्रेज़ चौकियों और राजस्व कार्यालयों पर आक्रमण किए।
उनका उद्देश्य केवल धन नहीं, बल्कि ब्रिटिश शासन के अन्याय का विरोध था।

सन्यासी दलों ने अंग्रेज़ी हुकूमत की कर वसूली की चौकियों को नष्ट किया और ज़ुल्म करने वाले ज़मींदारों को दंडित किया।
इसमें स्थानीय किसान और आम जनता भी उनके साथ शामिल हो गई, जिससे यह आंदोलन एक जन-विद्रोह का रूप ले लिया।


⚔️ अंग्रेज़ी दमन

ब्रिटिश सरकार ने इस विद्रोह को बड़ी गंभीरता से लिया।
जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने कठोर दमन की नीति अपनाई।
सन्यासियों को "लुटेरे" घोषित किया गया और कई को मृत्युदंड दिया गया।

लेकिन अत्याचारों के बावजूद यह विद्रोह लगभग 1763 से 1800 तक कई दशकों तक चलता रहा — जिससे यह भारत का सबसे दीर्घकालिक प्रतिरोध आंदोलन माना जाता है।


🪶 साहित्यिक छवि – ‘आनंदमठ’

इस विद्रोह की गूंज केवल इतिहास तक सीमित नहीं रही।
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ (1882) में इसी विद्रोह की पृष्ठभूमि को आधार बनाया।
यही वह उपन्यास था, जिसमें भारत का राष्ट्रीय गीत “वंदे मातरम्” पहली बार प्रस्तुत हुआ।

इस उपन्यास के माध्यम से बंकिमचंद्र ने यह दर्शाया कि कैसे धार्मिक और राष्ट्रभक्ति भावनाएँ मिलकर मातृभूमि की रक्षा का प्रतीक बनती हैं।


📜 महत्व

  • यह भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध पहला संगठित सशस्त्र आंदोलन था।

  • इसने भविष्य में होने वाले किसान आंदोलनों और 1857 की क्रांति के लिए प्रेरणा का कार्य किया।

  • इस विद्रोह ने यह सिद्ध कर दिया कि भारतवासी विदेशी शासन के अन्याय के विरुद्ध एकजुट होकर खड़े हो सकते हैं।


🇮🇳 निष्कर्ष

सन्यासी विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वह पहली लौ थी, जिसने ब्रिटिश सत्ता की नींव को हिला दिया।
यह केवल एक धार्मिक आंदोलन नहीं था, बल्कि भारत की आर्थिक, सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना का आरंभ था।
“वंदे मातरम्” की भावना इसी चेतना की परिणति थी, जो आगे चलकर पूरे राष्ट्र की प्रेरणा बन गई।


✍️ लेखक: Rudra’s IAS Team
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