गर्दभिल्ल वंश का इतिहास भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान रखता है। उज्जैन के राजा गंधर्वसेन (गर्दभिल्ल) से शुरू हुआ यह वंश आगे चलकर महान महाराजा विक्रमादित्य तक पहुँचा। विक्रमादित्य ने 58 ई.पू. में शकों को पराजित कर विक्रम संवत की शुरुआत की और स्वयं को “शकारि” की उपाधि दी। उनके काल में उज्जैन न केवल राजनीतिक राजधानी थी बल्कि यह कला, साहित्य और नवरत्न मंडल का प्रमुख केंद्र भी बना। कालिदास, वराहमिहिर और धन्वंतरी जैसे विद्वानों ने उनके दरबार में भारतीय ज्ञान को नई ऊँचाई दी। आज भी सिंहासन बत्तीसी और बेताल पच्चीसी जैसी कथाएँ उनकी न्यायप्रियता और लोकहितकारी शासन की गवाही देती हैं।
गर्दभिल्ल वंश की स्थापना
ईसा से कई शताब्दी पूर्व उज्जैन में मालवगण नामक साम्राज्य की
स्थापना हुई। इस साम्राज्य के राजा नाबोवाहन की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र
गंधर्वसेन ने “महाराजाधिराज मालवाधिपति महेंद्राद्वित्तीय” की उपाधि धारण करके
मालव गण को राजतन्त्र में बदल दिया। गंधर्वसेन का दूसरा नाम गर्दभिल्ल था।
सबसे प्रतापी शासक
महाराज विक्रमादित्य इस वंश का सबसे प्रतापी शासक हुआ।
जानकारी के साहित्यिक स्रोत
गर्दभिल्ल और विक्रमादित्य का उल्लेख सोमदेव की रचना कथासरित्सागर,
सातवाहन
नरेश हाल द्वारा रचित ग्रंथ गाथासप्तशती, गुजरात के महान जैन संत मेरुतुंग की
रचना थेरावली आदि ग्रंथों में मिलता है। जैन मुनि मेरूतुंग ने अपनी कृति थेरावली
के अनुसार गर्दभिल्ल वंश ने उज्जैन पर लगभग 153 वर्षों तक शासन
किया जिसमें से 13 वर्षों तक गंधर्वसेन ने शासन किया। वह एक शक्तिशाली और पराक्रमी
शासक था।
थेरावली
चौदहवीं शताब्दी में एक प्रसिद्ध जैन लेखक एवं संत मेरूतुंग ने थेरावली
नामक ग्रंथ की रचना की. इसमें महावीर स्वामी के समय से लेकर भारत में शकों के आगमन
तक का कालक्रम दिया गया है. इसमें उज्जयिनी के शासकों की वंशावली भी शामिल है
कालकाचार्य एवं सरस्वती की कथा
थेरावली में कालकाचार्य की कथा का उल्लेख है। कालकाचार्य एक प्रसिद्ध
जैन संत थे। उनकी बहन सरस्वती भी दीक्षा प्राप्त कर जैन भिक्षुणी बन गई। साध्वी
सरस्वती अत्यंत आकर्षक एवं खूबसूरत व्यक्तित्व की स्वामिनी थी। गर्दभिल्ल यानी
गंधर्वसेन ने साध्वी सरस्वती की सुन्दरता पर आसक्त होकर उनका अपहरण कर लिया।
गर्दभिल्ल की महारानी सौम्या ने साध्वी सरस्वती के साथ छोटी बहन जैसा
व्यवहार करके उनका विश्वास जीत लिया. समय के साथ साध्वी सरस्वती ने भी गंधर्वसेन
को अपना पति स्वीकार कर लिया।
मालवा पर शकों का आक्रमण
कालकाचार्य ने गर्दभिल्ल यानी गंधर्वसेन से अपनी बहन को मुक्त करने
की विनती की, किन्तु वह नहीं माना। तब कालकाचार्य सिन्धु नदी के पार गये जहां शक
या सिथियन शासकों की सत्ता थी। कालकाचार्य के अनुरोध पर शकों ने गर्दभिल्ल पर
आक्रमण करके सरस्वती को मुक्त कराया। इसके बाद शकों ने 17 वर्षों तक
उज्जैन पर शासन किया।
साध्वी सरस्वती को पुत्र रत्न की प्राप्ति
वन में निवास करते हुए सरस्वती ने एक पुत्र को जन्म दिया जिनका नाम
भर्तृहरि रखा गया। महाराज गर्दभिल्ल की मृत्यु के पश्चात साध्वी सरस्वती ने अपने
पुत्र भर्तृहरि को महारानी सौम्या दिया. इसके बाद अन्न जल का त्याग कर उन्होंने अपने
प्राण त्याग दिए।
महारानी को सौम्या को पुत्र रत्न की प्राप्ति
उसके तीन वर्ष पश्चात महारानी सौम्या ने भी एक पुत्र को जन्म दिया।
जिसका नाम विक्रमसेन रखा गया। बड़े होकर यही विक्रमसेन विक्रमादित्य के नाम से
उज्जैन की गद्दी पर बैठे।
मालवा को शकों के शासन से मुक्ति
विक्रमसेन ने 58 ई.पू. में उज्जैन को शकों से मुक्त
कराया। इसी उपलक्ष में 58 ई.पू. में विक्रम संवत आरम्भ किया गया.
महाराज विक्रमसेन ने ‘शकारि’ अर्थात ‘शकों का नाश करने वाला’ की उपाधि धारण की।
विक्रम के बड़े भाई भर्तृहरि का सन्यास
विक्रम के बड़े भाई भर्तृहरि की राजनीति में कोई रूचि नहीं थी.
राजनीति से अधिक रूचि ध्यान व योग में लगने के कारण उन्होंने राजपाट त्याग कर
सन्यास ले लिया।
विक्रमादित्य का साम्राज्य
महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण
में मिलता है। विक्रमादित्य भारत के महान सम्राट थे। कहा जाता है कि उनके द्वारा
किए गए महान कार्यों के पन्नों को पहले बौद्धकाल, फिर मध्यकाल में
फाड़ दिया गया।
महाराज विक्रमादित्य एक अन्तरराष्ट्रीय व्यक्तित्व
सम्राट विक्रमादित्य के काल में भारत विज्ञान, कला, साहित्य,
गणित,
नक्षत्र
आदि विद्याओं का विश्वगुरु था। माना जाता है कि विक्रमादित्य का शासन मध्य एशिया
तक फैला था। महाराज विक्रमादित्य का उल्लेख प्राचीन अरब साहित्यों में भी मिलता
है। महाराज विक्रमादित्य की प्रतिद्वंद्विता रोमन सम्राट से चलती थी कारण था कि
उसके द्वारा यरुशलम, मिस्र और सऊदी अरब पर आक्रमण करना और विक्रम संवत के प्रचलन को रोकना
था। बाद में रोमनों ने विक्रम संवत कैलेंडर की नकल करके रोमनों के लिए एक नया
कैलेंडर बनाया।
नवरत्न मंडल
विक्रमादित्य विद्वानों और कलाकारों के महान संरक्षक थे। उनके दरबार में नौ रत्न थे:
धन्वन्तरी – आयुर्विज्ञान
क्षपनक – विद्वान
अमरसिंह – कोशकार
शंकु – वास्तु शास्त्री
घटकर्पर – कवि
कालिदास – महान कवि
बेतालभट्ट – ज्योतिषी
वररुचि – व्याकरणाचार्य
वाराहमिहिर – खगोल एवं ज्योतिषविद्
विक्रमादित्य का कला साहित्य में योगदान
विक्रमादित्य स्वयं कई गुणों से संपन्न थे. उन्होंने अपने दरबार में
कई महान विद्वानों, कवियों और कलाकारों को सम्मान एवं संरक्षण प्रदान किया. उनके दरबार
में नौ प्रसिध्द विद्वानः- धन्वन्तरी, क्षपनक, अमरसिंह,
शंकु,
खटकरपारा,
कालिदास,
बेतालभट्ट,
वररूचि
और वाराहमिहिर थे, जो नवरत्न कहलाते थे। राजा इन्हीं की सलाह से राज्य का संचालन
करते थे।
भविष्य पुराण में लिखा गया है कि –
धन्वन्तरिः क्षपनकोमरसिंह शंकू बेतालभट्ट घटकर्पर कालिदासः.
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सम्भायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य।
धन्वन्तरी औषधिविज्ञान के ज्ञाता थे, संस्कृत के महान
कवि कालिदास महाराज विक्रमादित्य के सलाहकार के पद पर आसीन थे, वराहमिहिर
प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ एवं ज्योतिषविज्ञानी थे।
उज्जयिनी को (उज्जैन) प्राचीन भारत का ग्रीनविच माना जाता है जहाँ से
दुनिया के समय की गणना की जाती थी. स्वयं महाराज वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी थे,
लेकिन उन्होंने शैव एवं शाक्त संप्रदाय का पूरा सम्मान किया.
विक्रमादित्य की प्रशंसा में लिखी गयी दो पुस्तकें - बेताल पच्चीसी
एवं सिंहासन बत्तीसी नामक बहुत लोकप्रिय हुई. इन पर कई टेलीविजन धारावाहिक व
सिनेमा का निर्माण भी किया गया.
बेताल पच्चीसी (बेताल पञ्चविंशति)
इसके रचयिता बेताल भट्टराव थे जो न्याय के लिये प्रसिद्ध राजा विक्रम
के नौ रत्नों में से एक थे। इसका सबसे प्राचीन संस्करण सोमदेव कृत कथासरित्सागर
("कहानी की धाराओं का सागर") के 12वें भाग में मिलता है. यह पच्चीस
कहानियों का संग्रह है।
राजा विक्रमादित्य (विक्रम) एक दिगंबर (नग्न जैन तपस्वी) या वामाचारी
( तांत्रिक जादूगर) को वचन देते हैं कि वे एक वेताल को पकड़ेंगे, जो
एक पेड़ से उल्टा लटका रहता है और मृत शरीरों में निवास करता है और उन्हें जीवित
करता है।
राजा विक्रम को वेताल को तांत्रिक के पास लाने में कई कठिनाइयों का
सामना करना पड़ता है। हर बार जब विक्रम वेताल को पकड़ने की कोशिश करते हैं,
तो
वह एक कहानी सुनाता है जिसका अंत एक पहेली से होता है। अगर विक्रम सवाल का सही
जवाब नहीं दे पाते, तो पिशाच कैद में रहने को तैयार हो जाता है। अगर राजा को जवाब पता हो
और फिर भी वह चुप रहे, तो उसका सिर हज़ार टुकड़ों में फट जाएगा। और अगर राजा विक्रम सवाल का
सही जवाब दे देते हैं, तो पिशाच भागकर अपने पेड़ पर वापस चला जाएगा।
वह हर सवाल का जवाब जानता है; इसलिए पिशाच को
पकड़ने और छोड़ने का चक्र चौबीस बार चलता है। पच्चीसवें प्रयास में, वेताल
एक विनाशकारी युद्ध के बाद के पिता और पुत्र की कहानी कहता है। वे उस अराजकता में
रानी और राजकुमारी को जीवित पाते हैं, और उन्हें घर ले जाने का निर्णय लेते
हैं। समय आने पर, पुत्र का विवाह रानी से और पिता का विवाह राजकुमारी से होता है।
अंततः, पुत्र और रानी को एक पुत्र और पिता और राजकुमारी को एक पुत्री
प्राप्त होती है। वेताल पूछता है कि दोनों नवजात शिशुओं के बीच क्या संबंध है। यह
प्रश्न विक्रम को अटपटा लगता है। संतुष्ट होकर, वेताल स्वयं को
तांत्रिक के पास ले जाने की अनुमति देता है।
सिंहासन बत्तीसी (सिंहासन द्वात्रिंशिका)
परवर्ती राजा भोज परमार को 32 पुतलियों से जड़ा स्वर्ण सिंहासन
प्राप्त हुआ। जब वे उस पर बैठने लगे तो उनमे से एक-एक कर पुतलियों ने साकार होकर
सम्राट विक्रमादित्य की न्यायप्रियता, प्रजावत्सलता, वीरता से भरी
कहानियाँ सुनाई और शर्त रखी कि “यदि वे (राजा भोज) पूर्वज विक्रमादित्य के समकक्ष
हैं, तभी उस सिंहासन के उत्तराधिकारी होगें”। एम. आई. राजस्वी की पुस्तक
“राजा विक्रमादित्य” के अनुसार विक्रमादित्य को यह सिंहासन देवराज इंद्र ने दिया,
जिसमें
स्वर्ग की 32 शापित अप्सराएँ पुतलियाँ बनकर निवास करती थीं, इन
अप्सराओ ने विक्रमादित्य की न्यायप्रियता को अत्यंत निकट से देखा है।
✍️ यह लेख इतिहास और साहित्य में रुचि रखने वालों के लिए तैयार किया गया है।
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